कामदेव का पूजन होता था वसन्तोत्सव के दिन

by Geethalakshmi 2010-02-15 00:09:22

कामदेव का पूजन होता था वसन्तोत्सव के दिन


आज हम वसन्त ऋतु में वसन्त पंचमी और होली त्यौहार मनाते हैं किन्तु प्राचीन काल में वसन्तोत्सव मनाया जाता था। वसन्तोत्सव, जिसे कि मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है, मनाने की परम्परा हमारे देश में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही रही है। संस्कृत के प्रायः समस्त काव्यों, नाटकों, कथाओं में कहीं न कहीं पर वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव या मदनोत्सव का वर्णन अवश्य ही आता है। वसन्त को ऋतुराज माना गया है क्योंकि यह मानव की मादकता एवं कोमल भावनाओं को उद्दीप्त करता है। वसन्त पंचमी से लेकर रंग पंचमी तक का समय वसन्त की मादकता, होली की मस्ती और फाग का संगीत से सभी के मन को मचलाते रहता है। टेसू और सेमल के रक्तवर्ण पुष्प, जिन्हें कि वसन्त के श्रृंगार की उपमा दी गई है, सभी के मन को मादकता से परिपूर्ण कर देते हैं। शायद यही कारण है वसन्तोत्सव मनाने की।

वसन्तोत्सव का दिन कामदेव की पूजा की जाती थी। महाकवि “भवभूति” के ‘मालती-माधव’ संस्कृत नाटक के अनुसार एक विशेष मदनोद्यान का निर्माण करके वहाँ पर मदनोत्सव मनाया जाता था। मदनोद्यान के केन्द्र में कामदेव का मन्दिर होता था। इसी मदनोद्यान में नगर के समस्त स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक दूसरे पर अबीर-कुंकुम डालते और नृत्य-संगीत आदि का आयोजन करते थे। समस्त आयोजनों के सम्पन्न होने के पश्चात अन्त कामदेव की पूजा करने के साथ उत्सव का समापन हुआ करता था। राज परिवार तथा नगर के प्रतिष्ठित परिवारों की कन्यायें भी पूजन के हेतु यहाँ आया करती थीं। उनका मुख्य उद्देश्य भगवान कन्दर्प की कृपा से मनोवांछित वर की प्राप्त करने ही होती थी।

उल्लेखनीय है कि कामदेव प्राणीमात्र की कोमल भावनाओं के देवता हैं और उन्हें मदन, मन्मथ, प्रद्युम्न, मीनकेतन, कन्दर्प, दर्पक, अनंग, काम, पञ्चशर, स्मर, शंबरारि, मनसिज (मनोज), कुसुमेषु, अनन्यज, पुष्पधन्वा, रतिपति, मकरध्वज तथा विश्वकेतु के नाम से भी जाना जाता है।
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